Thursday 6 September 2018

मज़हब , मिट्टी और मित्र


खुशबू भूल जाऊँ कैसे, वो मिट्टी थी मेरे गांव की
राह दिखती तो मुड़ जाता मैं, छाप नही थी पाँव की।

प्यार था हर मजहब में भी, दोस्ती के न थे किनारे
हरे तुम्हारे केसरी हमारे, कई रंग की हैं मीनारें।

मंदिर में देखा एक ओंकार मैने, गुरुद्वारे देखा अल्लाह
ईशु को देखा रोजे रखते, मस्जिद में माखन लल्ला
मज़हब, मिट्टी , मित्र और मैं, इन म के कोई रंग नही
तेरा तेरा कहके तोला, नानक के थे ढंग यही

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