Wednesday, 21 October 2015

सीख

सीख

ढूंढ रहे हैं आज भी, मज़हब के किनारे वो |
कश्ती मट्टी की और चप्पू में आग लगाए बैठे हैं |
दूसरी नाँव में आते लोग, अन्जान से तो लगते नहीं |
पर किनारे की चाह में, मझधार लगाए बैठे हैं |

उड़ रहे हैं परिंदे, नयी हवा की चाह में |
झुण्ड में उन्होंने जोड़ लिए, मिलते पक्षी राह में |
पंख फैला, उड़ान भर, कर रहे किनारे की खोज|
बहुत अलग और विपरीत सी है, इंसान और पक्षी की सोच |



खिलते हुए फूल, मुस्कान किसी की वजह हैं |
रंग बिखेर, खुशबु फैलाये, बनायी अदभुत ये जगह है |
समझ जाते अगर सब लोग, कुदरत के इशारे तो |
मिल गए होते सबको, मज़हब के किनारे तो |
मिल गए होते सबको, मज़हब के किनारे तो |



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